Tuesday, December 9, 2014

अनकही बातें

कभी जब देखना उन आँखों से
आँखों में मेरी ,
कह देना वो, जिसे कहने में
लफ़्जों की गणित चूक जाती है

तुम्हारी आँख के कोने पे रुके उस
आंसू में लिखी कविता
शायद वो कहे, जो बयां करने में
कलम की सियाही सूख जाती है

लफ़्ज़ों को इस कदर
बेमायने कर दिया निगाहों ने
की ज़ुबाँ  कुछ बोले तो
बातों की लहर  टूट जाती  है

यूँ ही बातों के सिलसिले चले
कि बना के उनकी डोर
एक दूजे को थाम लें
डोर जो बार बार हाथों से छूट जाती है

चल पड़ेंगे फिर क़दमों की ताल को
दिल की धड़कन से मिलाये हुए
कि बिन तुम्हारे मेरी राहों से
मंज़िल रूठ जाती है.……

Sunday, August 10, 2014

अस्तित्व

मैं क्या हूँ ?
मैं क्या कहूँ ....... 
कुछ ख़ास रंगों से 
खींचा गया एक चित्र,
जो मेरा नाम सुनते ही 
तुम्हारे मस्तिष्क पटल पर 
उभर आया है, 
या एक अवधारणा मात्र ,

याद है जब पहली बार 
तुमने अपनी गहरी आँखों में 
मेरी एक टेढ़ी -मेढ़ी परछाईं बनायी थी 
उस कुरेद कर बनाये चित्र को 
सुधारता रहा मैं जाने अनजाने 
कुछ अपने कर्मों से 
कुछ तुम्हारी सोंच से 
पर अब भी उस परछाई 
का एक टुकड़ा वैसा का वैसा ही है 

और मैं वही एक छाप हूँ 
तुम्हारे ह्रदय पे 
जिसे रोज़ाना थोड़ा-थोड़ा 
बदलता हूँ 
शायद मेरे अस्तित्व  का, 
मेरे जीवित होने  का, 
संकेत यही है ....... 

 

Sunday, January 26, 2014

आवाज़ उठा के तो देख

बैठ न यूँ थक-हार के
बदलेगा मंज़र कदम बढ़ा के तो देख,

तलवार उठाना कोई ज़रूरी तो नहीं
पलट जायेंगे तख़्त,
आवाज़ उठा के तो देख,

क्यूँ चुनते रहें गद्दारों और दलालों को
मिलेगा नेता हमें,
तू भीड़ के आगे आके तो देख,

भरोसे न रह अपने  हुक्मरानों के
मरेगी भुखमरी भी,
भूखे को रोटी खिला के तो देख,

खामियां हैं बुराइयां हैं रहना है यहाँ मुश्किल बहुत
देश सुधर जाएगा,
अपनी जिम्मेदारियां निभा के तो देख.

तलवार उठाना कोई ज़रूरी तो नहीं
पलट जायेंगे तख़्त,
आवाज़ उठा के तो देख,


ज़िन्दगी

कुछ गुजरे हुए नाज़ुक लम्हे
एक-आध गुनगुनी सी याद, है ज़िन्दगी !
माँ के होंठों का स्पर्श माथे पर
यारों की चुलबुली सी बात, है ज़िन्दगी !

बैठे रहना घंटों ठंडी धूप में
और बस यूँ ही खो जाने का एहसास, है ज़िन्दगी !
तेरे ना होने पर जो खो जाए
और जो तू  पास हो तो पास, है ज़िन्दगी !

हज़ारों बेवजह बीत रहे लम्हों के दरम्यां
तेरी एक बेपरवाह मुस्कान, है ज़िन्दगी !
कुछ दुनियादारी का जीता-जागता इल्म
कुछ वही घिसा-पिटा किताबी ज्ञान, है ज़िन्दगी !

जाने कितने पसंदीदा गानों कि धुनें
कुछ किस्से जो ना आयें रास, है ज़िन्दगी !
सब कुछ तो बस यूँ ही रहा
और जो थोडा बच गया वो 'खास', है ज़िन्दगी !

मिलते तो रहे हज़ारों से उम्र भर
पर मुझसे मेरी मुलाकात, है ज़िन्दगी !
रास्तों के कहकहे या मंज़िलों कि ख़ामोशी
रहे जो हरकदम साथ, है ज़िन्दगी !

कुछ गुजरे हुए नाज़ुक लम्हे
एक-आध गुनगुनी सी याद, है ज़िन्दगी !

उदासी

क़तरा क़तरा यूँ आँखों से हसरत
अश्क़ के संग बह गयी
खाली -खाली इस मकां में
बस उदासी रह गयी

लफ्ज़ भी जो नाकाम रहें
हालत मेरी बयां करने को
वो शाख से टूटे हुए
पत्ते कि ज़ुबानी कह गयी 

सात समंदर पार कि
ख्वाहिश लिए बैठा था मैं
जो मंज़िल मेरी उस पार थी
उस पार ही रह गयी

जो भी मेरे दिल में था
मैंने तुझपे मढ़ दिया
पीर बेशक़ मेरी थी
ना जाने तू क्यूँ सह गयी

अपनी हर नाकामी का आखिर
मैं ही तो जिम्मेदार हूँ
जो दूजों ने करी, जो गैरों ने कही
वो बात पुरानी बह गयी