इक नदी है
जो भटकती है अटकती है
रुकावटों को झटकती है
झरनों से लटकती है
बोझ तले मिट्टी के
धीरे धीरे सरकती है
मगर बढ़ती है दिन रात
क्यूंकि सागर से मिलना है
सारी की सारी मेहनत
सारी मशक्कत सारी जद्दोजहद
बस उससे मिल पाने को
मिटा देने को खुद को
और स्वयं सागर हो जाने को
कभी देखा है किसी को
इतना आतुर
स्वयं को ख़त्म करने को
या
स्वयं को पा लेने को
जो भटकती है अटकती है
रुकावटों को झटकती है
झरनों से लटकती है
बोझ तले मिट्टी के
धीरे धीरे सरकती है
मगर बढ़ती है दिन रात
क्यूंकि सागर से मिलना है
सारी की सारी मेहनत
सारी मशक्कत सारी जद्दोजहद
बस उससे मिल पाने को
मिटा देने को खुद को
और स्वयं सागर हो जाने को
कभी देखा है किसी को
इतना आतुर
स्वयं को ख़त्म करने को
या
स्वयं को पा लेने को