कुछ ख्वाब देखे थे मैंने
कुछ सपने संजोये थे
उन सपनों में ही हँसते थे
उन में ही हम रोये थे
छोड़ ख्वाबों को तकिये पर
आज जाने मैं चला किधर
सोंच रखा था ज़िन्दगी को
कुछ इस तरह सजाना है
रात में भी दिन हो जहाँ
वहीँ बस अपना आशियाना है
उन उजालों से बचा नजर
आज जाने मैं चला किधर
बाँध रखा था खुद को
ख्वाबों के कंटीले तारों से
चाहता था ज़माने से अलग
अलग दिखूं हजारों से
अब बेफिक्र हूँ फिक्र छोड़कर
जाने मैं चला किधर
राह और मंजिल से बेखबर
आज जाने मैं चला किधर
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