कैसे कहूं मैं कौन हूं?
कि कई रूप हैं मेरे
अलग लोग, अलग संगत
वैसा ही अलग अलग मैं भी
मानो एक आईना हूँ
तुम्हारी मेरे प्रति अपेक्षा का
कि तुम्हारी अवधारणा बदलने को
बदलता हूं मैं.
इसी बदलाव की उथल पुथल में
खुद सा ना रहा हूँ
कैसे कहूँ मैं कौन हूँ ?
ढलता हूं नित नये आकार में
आयाम बदलता हूं व्यवहार के
जिसने जैसा चाहा
वैसा होता रहा हूं
हां मगर थोड़ा थोड़ा
खोता रहा हूँ
सर्वमान्य सम्पूर्ण होने की चाह में
अधूरा सा होता रहा हूँ
कहो कैसे कहूँ मैं कौन हूं?
दूसरों के तराजू में
अपना वजूद तौलता हूँ
और नापने को मन की गहराई
मापने उधार के लूंँ
तुम्हारे अनकहे नियम और शर्तों पर
खुद की संरचना करता हूँ
भिन्न-भिन्न दिशानिर्देशों पे चल
अपने मन को गढ़ता हूँ
पर होना कुछ अलग सा चाहूं
कहो कैसे कहूँ मैं कौन हूं?
कि कई रूप हैं मेरे
अलग लोग, अलग संगत
वैसा ही अलग अलग मैं भी
मानो एक आईना हूँ
तुम्हारी मेरे प्रति अपेक्षा का
कि तुम्हारी अवधारणा बदलने को
बदलता हूं मैं.
इसी बदलाव की उथल पुथल में
खुद सा ना रहा हूँ
कैसे कहूँ मैं कौन हूँ ?
ढलता हूं नित नये आकार में
आयाम बदलता हूं व्यवहार के
जिसने जैसा चाहा
वैसा होता रहा हूं
हां मगर थोड़ा थोड़ा
खोता रहा हूँ
सर्वमान्य सम्पूर्ण होने की चाह में
अधूरा सा होता रहा हूँ
कहो कैसे कहूँ मैं कौन हूं?
दूसरों के तराजू में
अपना वजूद तौलता हूँ
और नापने को मन की गहराई
मापने उधार के लूंँ
तुम्हारे अनकहे नियम और शर्तों पर
खुद की संरचना करता हूँ
भिन्न-भिन्न दिशानिर्देशों पे चल
अपने मन को गढ़ता हूँ
पर होना कुछ अलग सा चाहूं
कहो कैसे कहूँ मैं कौन हूं?
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteProtsahan ke liye dhanyawad.
ReplyDeleteअपनी पहचान के बिना जिया तो क्या जिया .....
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना ..
स्वयं की खोज ही सबसे बड़ी खोज है। सुन्दर रचना।
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