कदम दो चार चलता हूँ, कि खो जाता हूँ
गोया चलने से ज्यादा भटकने की आदत है
जब भी दिल की कहता हूँ मुसीबत हो ही जाती है
मेरे लफ़्ज़ों को जेहन में खटकने की आदत है
सुन लूँ जो मन की तो मंजिलों से दूर जाता हूँ
इसे हर एक चौराहे पे अटकने की आदत है
जहाँ मुश्किल नहीं होती मुझे मुश्किल वहीं होती
आसां हों जो इम्तेहां उनमे लटकने की आदत है
ये हम-राह हम-मंजिल हम-सफर सब ठीक है लेकिन
कोई जब कसके पकड़े हाथ झटकने की आदत है