Monday, May 7, 2012

जाने मैं चला किधर

कुछ  ख्वाब  देखे थे मैंने 
कुछ  सपने  संजोये थे 
उन सपनों में ही हँसते  थे 
उन में ही हम  रोये थे 
छोड़ ख्वाबों को तकिये पर 
आज जाने मैं चला किधर 

सोंच  रखा था  ज़िन्दगी को 
कुछ  इस  तरह  सजाना  है 
रात  में  भी दिन  हो जहाँ 
वहीँ बस  अपना  आशियाना  है 
उन उजालों से बचा नजर 
आज जाने मैं चला किधर

बाँध रखा  था खुद को 
ख्वाबों के कंटीले  तारों से 
चाहता था ज़माने  से अलग 
अलग  दिखूं हजारों से 
अब  बेफिक्र  हूँ फिक्र  छोड़कर 
 जाने मैं चला किधर

राह  और  मंजिल  से बेखबर 
आज जाने मैं चला किधर

No comments:

Post a Comment