Sunday, December 29, 2019

लहज़े से जब बदगुमानी झलकती है
कहो कैसे न सवाल रखूं
मासूमों को जो चीरती हैं
उन शमशीरों से मोहब्बत किस हाल रखूं

Monday, April 22, 2019

किरदार

क्या उम्मीद रखूं इस जहाँ किसी से
मेरा किरदार समझने की,
क्या दोस्त क्या हमदम
मेरा आईना भी मुझको उल्टा देखता है

जितनी कमी रह जाती है
जिसके वजूद की गहराई में
वो हर किसी के पैमाने में
जाम उतना ही कम देखता है

ईमान और ज़मीर के तले
घिस घिस के कटती है जिंदगी अक्सर
और तुम कहते हो वो ऊपर बैठा
मेरे ज़ख्मों को हर दम देखता है

बोल रखा है उसने मुझे कि,
वो किसी और का हो चुका है
हैरत की बात ये है मगर
वो आज भी मुड़ मुड़ के देखता है... 


Wednesday, January 9, 2019

इक नदी

इक नदी है
जो भटकती है अटकती है
रुकावटों को झटकती है
झरनों से लटकती है
बोझ तले मिट्टी के
धीरे धीरे सरकती है
मगर बढ़ती है दिन रात
क्यूंकि सागर से मिलना है
सारी की सारी  मेहनत
सारी मशक्कत सारी जद्दोजहद
बस उससे मिल पाने को
मिटा देने को खुद को
और स्वयं सागर हो जाने को

कभी देखा है किसी को
इतना आतुर
स्वयं को ख़त्म करने को
या
स्वयं को पा लेने को 

बिन तराशा पत्थर

ज़िन्दगी की नदी में 
अभी इक बिनतराशा पत्थर हूँ मैं 

पर्वतों से टूटा
सुगढ़ता से वंचित 

ऐने पैने कोने हैं 
रूढ़ि विरुद्ध आकृति 

बेढब सा बे-आकार 
किसी स्थिति सुकर नहीं
 
आने वाले हर एक मोड़ पर ये 
पैने नुकीले कोने , अलग हो जायेंगे 

हर नए उतार चढ़ाव पे 
कुछ कम होगा मेरा खुरदरापन 

परत दर परत 
सरल होता जायेगा मेरा आकार 

हों जाऊं शायद 
सुयोग्य, उपयुक्त, रूढ़ि-परक 

पर खो भी दूंगा बहुत कुछ 
जरुरी - गैर जरुरी 

और यूँही धारा के साथ बहते बहते 
नित नए रूप में  ढलते ढलते 

जब तलक आएगा ठहराव 
रेत हो जाऊंगा 

आना कभी इलाहाबाद 
मिलूंगा वहीँ नदी किनारे 
गंगा की रेती में ....