Wednesday, January 9, 2019

बिन तराशा पत्थर

ज़िन्दगी की नदी में 
अभी इक बिनतराशा पत्थर हूँ मैं 

पर्वतों से टूटा
सुगढ़ता से वंचित 

ऐने पैने कोने हैं 
रूढ़ि विरुद्ध आकृति 

बेढब सा बे-आकार 
किसी स्थिति सुकर नहीं
 
आने वाले हर एक मोड़ पर ये 
पैने नुकीले कोने , अलग हो जायेंगे 

हर नए उतार चढ़ाव पे 
कुछ कम होगा मेरा खुरदरापन 

परत दर परत 
सरल होता जायेगा मेरा आकार 

हों जाऊं शायद 
सुयोग्य, उपयुक्त, रूढ़ि-परक 

पर खो भी दूंगा बहुत कुछ 
जरुरी - गैर जरुरी 

और यूँही धारा के साथ बहते बहते 
नित नए रूप में  ढलते ढलते 

जब तलक आएगा ठहराव 
रेत हो जाऊंगा 

आना कभी इलाहाबाद 
मिलूंगा वहीँ नदी किनारे 
गंगा की रेती में .... 


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