ज़िन्दगी की नदी में
अभी इक बिनतराशा पत्थर हूँ मैं
पर्वतों से टूटा
सुगढ़ता से वंचित
ऐने पैने कोने हैं
रूढ़ि विरुद्ध आकृति
बेढब सा बे-आकार
किसी स्थिति सुकर नहीं
आने वाले हर एक मोड़ पर ये
पैने नुकीले कोने , अलग हो जायेंगे
हर नए उतार चढ़ाव पे
कुछ कम होगा मेरा खुरदरापन
परत दर परत
सरल होता जायेगा मेरा आकार
हों जाऊं शायद
सुयोग्य, उपयुक्त, रूढ़ि-परक
पर खो भी दूंगा बहुत कुछ
जरुरी - गैर जरुरी
और यूँही धारा के साथ बहते बहते
नित नए रूप में ढलते ढलते
जब तलक आएगा ठहराव
रेत हो जाऊंगा
आना कभी इलाहाबाद
मिलूंगा वहीँ नदी किनारे
गंगा की रेती में ....
No comments:
Post a Comment