क्या उम्मीद रखूं इस जहाँ किसी से
मेरा किरदार समझने की,
क्या दोस्त क्या हमदम
मेरा आईना भी मुझको उल्टा देखता है
जितनी कमी रह जाती है
जिसके वजूद की गहराई में
वो हर किसी के पैमाने में
जाम उतना ही कम देखता है
ईमान और ज़मीर के तले
घिस घिस के कटती है जिंदगी अक्सर
और तुम कहते हो वो ऊपर बैठा
मेरे ज़ख्मों को हर दम देखता है
बोल रखा है उसने मुझे कि,
वो किसी और का हो चुका है
हैरत की बात ये है मगर
वो आज भी मुड़ मुड़ के देखता है...
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