क़तरा क़तरा यूँ आँखों से हसरत
अश्क़ के संग बह गयी
खाली -खाली इस मकां में
बस उदासी रह गयी
लफ्ज़ भी जो नाकाम रहें
हालत मेरी बयां करने को
वो शाख से टूटे हुए
पत्ते कि ज़ुबानी कह गयी
सात समंदर पार कि
ख्वाहिश लिए बैठा था मैं
जो मंज़िल मेरी उस पार थी
उस पार ही रह गयी
जो भी मेरे दिल में था
मैंने तुझपे मढ़ दिया
पीर बेशक़ मेरी थी
ना जाने तू क्यूँ सह गयी
अपनी हर नाकामी का आखिर
मैं ही तो जिम्मेदार हूँ
जो दूजों ने करी, जो गैरों ने कही
वो बात पुरानी बह गयी
अश्क़ के संग बह गयी
खाली -खाली इस मकां में
बस उदासी रह गयी
लफ्ज़ भी जो नाकाम रहें
हालत मेरी बयां करने को
वो शाख से टूटे हुए
पत्ते कि ज़ुबानी कह गयी
सात समंदर पार कि
ख्वाहिश लिए बैठा था मैं
जो मंज़िल मेरी उस पार थी
उस पार ही रह गयी
जो भी मेरे दिल में था
मैंने तुझपे मढ़ दिया
पीर बेशक़ मेरी थी
ना जाने तू क्यूँ सह गयी
अपनी हर नाकामी का आखिर
मैं ही तो जिम्मेदार हूँ
जो दूजों ने करी, जो गैरों ने कही
वो बात पुरानी बह गयी
No comments:
Post a Comment