Saturday, December 5, 2015

दरख़्त

झांकते हैं दरख़्त
रोज़ खिड़की से मेरी,
चलो कोई तो है हमदम मेरा
वरना किसकी ज़िन्दगी में शामिल कौन है

लिबास डाल कर निकलते हैं
इज़्ज़तदार जो ठहरे
एहसासों की नुमाइश करे
जमाने में ऐसा ज़ाहिल कौन है

रोते हुए दुबके रहें
हर दिल के कोने में
मिल जाते हैं सबको ये
पर इन  ग़मों को हासिल कौन है

रात भटकती रही रात भर
लहरों की थपकियों से जागने को
ज़िन्दगी की कश्तियाँ तैरती डूबती रहीं
ना जाने इस समंदर का साहिल कौन है

झांकते हैं दरख़्त
रोज़ खिड़की से मेरी,
चलो कोई तो है हमदम मेरा
वरना किसकी ज़िन्दगी में शामिल कौन है 

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