Wednesday, March 26, 2025

पर्दा

 आंखों पर झूठ का एक पर्दा है

जिसे उतार फेंकने का दिल करता है


हंसना नकली रोना नकली

बातों में एक बनावट है

मेरी जिंदगी! मेरी कहानी!

लगे किसी और की ही लिखावट है


मुझमें क्या है मेरे जैसा

और क्या लोगों को दिखता है

झूठ के परदे पर आखिर

एक अदाकार ही टिकता है


जिसको चाह सके ये दुनिया

मैं क्यूं उस जैसा बन जाऊं

असली भी हूं मैं कुछ तो

या बस परछाईं ही बनना चाहूं?


मैं वो ही दिखलाऊंगा तुमको

जिसको तुम स्वीकार सको

ढांप के रखो कमियां उस कोने में

जिसमें ख़ुद को धिक्कार सको


संदेह मेरा मुझ पर बली हुआ है

आत्मबल अब डरता है

आंखों पर झूठ का एक पर्दा है

जिसे उतार फेंकने का दिल करता है।

बाकी है

 तुम चले गए, तो चले गए 

अब ग़म भी कितना करिए 

तस्वीर हटा दी है मैंने 

दीवार पे निशाँ बाकी है l


मेरा माज़ी मेरे आज को 

गढ़ता रहा है कतरा-कतरा 

मेरे आज में तुम गायब हो 

मुझमें तुम्हारे रेशे बाकी हैं l


मेरा आधा वजूद छीन 

ले गया है तू मुझसे,

बचपन गुम हो गया

बस आधी जवानी बाकी है।


वो सारे कदम साथ के

वो साझा मंजिलें अपनी

लापता सा खड़ा हूं मैं

गीली रेत पे निशां बाकी हैं।


तुम्हें मैंने खोया है या गंवाया है?

किसी ने तुमको ढूंढा है या पाया है?

तुम जरूरी थी मुझे

या हो जरूरत अब किसी की?

जवाब मौन मेरे सारे 

सवाल बाकी हैं।

Tuesday, June 7, 2022

होलिका दहन

 पथरीले रास्ते

लंगड़ी टांग

विकास का नाच

चलता रहे।

झोपड़ियां जलें

रोटियां सिकें

लोकतंत्र का पेट

भरता रहे ,

तलवारें चलें

वहशत उगे

सियासत का चमन 

खिलता रहे ,

लोक की लकड़ी

तंत्र की आग

होलिका दहन

चलता रहे 

कानों में घुला ज़हर

 कानों में घुला ज़हर

यूं दिल में उतर जायेगा

कतरा कतरा हौले हौले

इख्तिलाक मर ही जायेगा 


ना हमे तुमपे यकीं

ना तुम्हें हमपे भरोसा

हो कोई भी वाकया

सवाल नीयत पे आएगा


कौन करे तरक्की, अमन

खुशहाली की बातें

कोशिशें करते ही जिक्र

हिफाज़त का आएगा


धोखे दिए तुमने हमें

लूटा कैसे हमने तुम्हें

गले मिलने से पहले, दौर 

तोहमतों का आएगा


रोजी की खातिर

बोलता है झूठ जो

डाली है फूट, खुद 

उसका शिकार हो जायेगा 


कानों में घुला ज़हर

यूं दिल में उतर जायेगा

कतरा कतरा हौले हौले

इख्तिलाक मर ही जायेगा 

Tuesday, September 8, 2020

सपनों के बीज

सृष्टि का सृजन 
नहीं होता है केवल 
विश्वकर्मा के चमत्कार से 
इसके लिए बलि लगती है 
खून पसीने और सपनों की 

ये बलि देता है एक मज़दूर 
जो मार देता है 
सपनों को लड़कपन में ही 
और दफ़्न कर देता है 
किसी सौ मंज़िला 
ईमारत की नींव में 

इन सपनों के बीज से 
उगते हैं घर-बार 
कारखाने -मशीनें 
ऐश-ओ-आराम 
और हमारी ज़िन्दगी। 

Monday, January 6, 2020

आईने का शख्स

कभी देखो आईने में खुद को
क्या पहचानते हो इस शख्स को

मिले थे जिसे तुम आईने में बचपन के
जिसे रोज निहारते बड़े हुए लड़कपन से
देखते रहे जिसका रोज़ का बाल संवारना
नए कपड़े पहनना, पहन के  उतारना

वो जो हँस हँस के गाने गाता था
हाथ छोड़ के साइकिल चलाता था
वो जो खुद के चुटकुलों पे ठहाके लगाता था
पर उस लड़की के आगे लजाता था,

उसके जैसा ये बिलकुल दिखता नहीं
हँसने गाने  मुस्कुराने को रुकता नहीं
न पता किस दौड़ में है ये
जल्दी है बहुत, किसी होड़ में है ये
खीझता है जूझता है परेशान है,
जो भी हो ये शख्स कोई अनजान है

बचपन से खैर वक़्त बहुत गुजर गया
न जाने कौन आईने का शख्स बदल गया 

Sunday, December 29, 2019

लहज़े से जब बदगुमानी झलकती है
कहो कैसे न सवाल रखूं
मासूमों को जो चीरती हैं
उन शमशीरों से मोहब्बत किस हाल रखूं