Tuesday, May 14, 2013

शाम की दास्तां



दिन तो फिर दिन है
रात की अपनी बात है
इन दोनों के जो दरमयान
दिलकश सी एक शाम है

ना धूप सी ये जलती है
ना अँधेरे सी खलती है
मद्धम मद्धम आंच है
दिये सी ये जलती है

दिल में कुछ सुकूं -सुकूं
सा हो जाये
शहद सा आँखों में घुलती है
हर रोज शाम मुझे यूँ ही मिलती है

और आज भी .....

शाम गहरा रही है
हर मंजर है धूमिल- धूमिल
लाल- लाल आँखें सूरज की
नींद से बोझिल- बोझिल .........


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